शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

वो सुहाने दिन [कहानी] (Part-2)



वो सुहाने दिन
[गतांक से आगे] अगले दिन मै बहुत ज़्यादा उत्साहित था। लेकिन मेरी सारी उम्मीदो पर पानी फ़िर गया क्योंकि वो आज़ नही आई थी। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था। लेकिन मै कर भी क्या सकता था। आज़ किसी भी काम में मेरा मन नही लग रहा था। अब मै कल का इंतज़ार कर रहा था। मैने बहुत से लोगो को कहते सुना था कि इंतज़ार का मज़ा ही कुछ और होता है। लेकिन सच बताऊ मुझे तो बिल्कुल भी मज़ा नही आ रहा था। अब इंतज़ार करने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नही था।
आज़ मै कालेज ज़ाने के लिये ज़ल्दी ही तैयार हो गया था। शायद मुझे उससे मिलने की ज़ल्दी थी। वरना मुझे याद नही कि मै पिछ्ली बार कब टाइम से कालेज़ गया था।
ज़ैसे ही वो बस मे चढी, मैने केवल एक बार उसकी तरफ़ देखा। फ़िर पूरे रास्ते मैने उसकी तरफ़ नही देखा। बस से उतरने के बाद मै उसके पीछे तो गया लेकिन मैने उससे बात नही की। उसने शुरूआत की - " सारी, मै कल नही आ पाई थी।"
"मैने पूछा क्या?"
"मै बता तो रही हूं"
"अब क्यो बता रही हो? ज़ब मैने पहले ही तुमसे पूछा था तब नही बता सकती थी।"
"तब मुझे भी नही पता था।"
"क्यों?"
"मम्मी की तबीयत ठीक नही थी। इसलिये मुझे घर रूकना पडा था।"
मै थोडी देर तक चुप रहा तो उसने पूछा - " अभी भी मुझसे नाराज़ हो क्या?"
"मै तुमसे नही खुद से नाराज़ हूं"
"इसमे तुम्हारी गलती नही तुम्हारी ज़गह मै होती तो मुझे भी गुस्सा आ ज़ाता"
"अच्छा कितना गुस्सा आता है तुम्हे?"
"तुम से ज़्यादा"
"कब आयेगा?"
"ज़ब तुम दिलाओगे"
"क्या?"
"गुस्सा, और क्या"
मै हँसने लगा और वो भी।
"मै कोशिश करूंगा कि तुम्हे गुस्सा ना आए"
"क्यों?"
"क्योंकि गुस्से मे तुम्हारा चेहरा अच्छा नही लगता।"
"तो कब अच्छा लगता है?"
"ज़ब तुम मुस्कुराती हो।"
"कितनी अच्छी लगती हूं मै तुम्हे?"
"ज़्यादा नही"
"तो फ़िर रोज़ मेरे पीछे क्यों आते हो?"
"टाइमपास करने के लिये"
"मै ही मिली हूं टाइम पास करने के लिये"
"हां, क्योंकि तुम अच्छी लगती हो।"
"अभी तो तुमने कहा कि मै ज़्यादा अच्छी नही लगती हूं"
"अच्छी लगती हो , ज़्यादा अच्छी नही"
"ज़ाओ तुम और आज़ के बाद मुझसे बात मत करना"
"तुम तो नाराज़ हो गई। अरे मै तो मज़ाक कर रहा था।"
"मुझे इस तरह का मज़ाक पसंद नही है।"
"ठीक है आगे से नही करूंगा"
थोडी देर बात करने के बाद मै कालेज़ चला गया। उसके बाद ………………………………………

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