बुधवार, 12 दिसंबर 2012

प्रेम -पत्र 2

स्वीटी,
        जब आंखे तेरे दिए हुए अश्कों से सराबोर हो गई, जब दिल तेरे दिए हुए जख्मों से लहुलूहान हो गया, जब कर्णपल्लव तेरे व्यंग्य-बाणों से आहत हो गए , जब तेरे नाम को इन होठों पर लाने का साहस ना रहा मुझमे , तब भी इस दिल से तेरे लिए दुआ ही निकली ।
        लेकिन  अगर तुम मुझसे दूर रहकर ही प्रसन्न हो, तो मै क्यों तुम्हारे जीवन मे विष घोलने का घृणित कार्य करुं । मुझे तुम्हारे जीवन मे बलपूर्वक प्रवेश करने का कोई अधिकार नही है । मै उन निकृष्ट प्रेमियों मे से नही हूं जो धोखा दिए जाने पर अपने प्रेमी का अहित कर बैठूं ।
        किंतु क्या सिर्फ़ नाराज़गी की वजह से संबंधो को समाप्त किया जा सकता है ? मै स्वीकार करता हूं कि मैने कुछ ऐसी बाते कह दी थी जो अभी तक तुम्हारे अन्तःकरण मे शूल की भांति चुभ रही होंगी ।किंतु मैने वो सब क्रोध के वशीभूत होकर कहा था । क्रोध में व्यक्ति अपने दिल की बात नही कहता, वह केवल दूसरे के दिल को पीडा देना चाहता है । परंतु संबंध समाप्त करना इतना सरल नही है, जितना तुम्हे प्रतीत हो रहा है । क्या तुम कभी मेरे साथ व्यतीत किए हुए उन प्रेमपूर्ण क्षणों को अपनी स्मृति से विस्मृत कर पाओगी ? तुम शायद कर भी सकों, लेकिन मेरे लिए तो ये असंभव है । मै तुमसे दूर जाने के बारे में सोच भी नही सकता । इस विचार मात्र से ही मेरा मन विचलित होने लगता है । मै स्वयं को संभालने के लाख प्रयत्न करता हूं, किंतु सफ़ल नही हो पाता हूं ।
        मुझे तो अभी तक यही अहसास था कि वो प्रेम का ही बंधन है जो हम दोनो के दिलों को बांधे हुए है और जो हमे एक-दूसरे से जुदा नही होने देता । लेकिन ये सोचना शायद मेरी भूल थी । अगर वास्तव में प्रेम था, तो नाराज़गी की वजह से घृणा करने का कोई औचित्य नही है  । अगर तुम्हे मुझसे प्रेम होता, तो तुम शब्दों से आहत होकर दुःखी होती, ना कि नाराज़ होकर इस तरह का व्यवहार करती । मै भी जाने क्या-क्या सोचने लगा ? मै तो आज भी यही दुआ करता हूं कि जहां भी रहो, खुश रहना ।


"ना खिल पाया कोई फूल गुलशन में मेरे, 
                          काँटों से उलझती रही अंकित की आरज़ू "

                                                                                                     -तुम्हारा और सिर्फ़ तुम्हारा विजय

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